भारत में सिनेमा तीन तरह का है, एक वो जो बड़े-बड़े घर, बड़े-बड़े बिजनेस, डिज़ाइनर कपड़ों की दुनिया दिखाता है, दूसरा वो जो ताबड़ तोड़ एक्शन, बड़े-बड़े स्पेशल इफेक्ट्स और सैकड़ों-हज़ारों करोड़ के कलेक्शन के रिकॉर्ड बनाता है, और तीसरा टीटू अंबानी की तरह का सिनेमा, जो आम लोगों की आम कहानी कहता है। मिडिल क्लास फैमिली के सपनों, उनकी ज़िंदगी, उनके टूटने-बिरखने और उठने की कहानी कहता है। मुश्किल ये है कि जैसे मिडिल क्लास अपनी ज़िंदगी और सरकार की योजनाओ में हाशिये पर है, वैसे ही ये सच्ची कहानियां बॉलीवुड में प्रमोशन और कलेक्शन के पैमाने में हाशिए पर है। और अच्छी बात ये है कि ये मिडिल क्लास है ना बाबू, यही देश चलता है, यही बॉलीवुड चलाता है, यही ज़िंदगी चलाता है और हार नहीं मानता है, तो बॉलीवुड का ये सच्चा सिनेमा भी हार नहीं मानता, बार-बार ज़ोर लगाता है।
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टीटू अंबानी बहुत ही रिलेटेबल फिल्म है। मतलब हर फैमिली नहीं, तो हर दूसरी-तीसरी मिडिल क्लास फैमिली का मेंबर इस कहानी से जुड़ेगा। कहानी ही ऐसी है, कि अजमेर में फोटो फ्रेम बेचने वाली विरासत लिए शुक्ला फैमिली का हर मेंबर, अपनी ज़वानी में बड़ा बिजनेसमैन बनने के सपने देखता है, थोड़ा लोगों को ठगता है और थोड़ा ठगा जाता है। टीटू शुक्ला को भी नौकरी नहीं करनी, ना फैमिली के फोटो फ्रेम वाले बिजनेस में हाथ बंटाना चाहता है। वो कुछ ऐसा करना चाहता है, जिसमें झट-पट कमाई हो, और फटाफट सपने पूरे हों। लेकिन रिस्क है, तो इश्क़ है वाला फॉर्मुला हर जगह नहीं चलता। टीटू बिजनेस के खेल में बार-बार ठोकर खाता और नतीजा परिवार को भुगतना पड़ता है। उधर मौसमी और टीटू की लव स्टोरी भी चल रही है। मौसमी सरकारी नौकरी में है, घर की अकेली लड़की है। कमाती है, और मां-बाप का ख़्याल रखती है। थोड़ी तकरार, थोड़ी मनुहार के बाद दोनो की शादी भी हो जाती है और तब जाकर टीटू अंबानी की कहानी शुरु होती है, जब टीटू मौसमी के पर्स से पैसे निकालता है और खुद का लोन रिजेक्ट होने पर मौसमी के नाम पर लोन लेने की ज़िद करता है। मौसमी को इस बात से ऐतराज़ है, क्योंकि वो अपनी कमाई से अपने मां-बाप का ख़्याल रखना चाहती है। दूसरी ओर टीटू को लगता है कि शादी के बाद बीवी की कमाई पर उसका अधिकार है। मसला आगे बढ़ता है, मौसमी घर छोड़कर मां-बाप के पास रहने चली जाती है। अब टीटू का क्या होगा ? ये भी हमने ट्रेलर में देखा है। क्लाइमेक्स क्या होगा? इसका अंदाज़ा भी हम लगा सकते हैं।
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ज़ाहिर है टीटू अंबानी की कहानी प्रेडिक्टेबल है, आपको पहले ही पता होता है कि कहानी में क्या होने वाला है। क्लाइमेक्स के पास आते-आते फिल्म प्रीची, यानि उपदेश देने लगती है, जो खटकेगा ज़रूर। लेकिन यही तो हमारी आपकी ज़िंदगी में होता है, हम लड़खड़ाते हैं, हालात और अपने समझाते है। टीटू अंबानी की कहानी का सबसे बड़ी यूएसपी ये है कि ये फिल्म एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी होने का दंभ नहीं भरती, बल्कि आम लोगों की आम कहानी होने की बात करती है। रोहित राज गोयल, जिन्होने स्मॉल स्क्रीन पर दिल छू लेने वाले सीरियल्स बनाए हैं, उन्होने टीटू अंबानी की कहानी में अपनी सादगी नहीं छोड़ी है। कहानी उनकी है, स्क्रीनप्ले उनका है डायरेक्शन भी उनका है, इसलिए तारीफ़ भी उनकी ही होनी चाहिए।

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दीपिका सिंह, जो दिया और बाती सीरियल से घर-घर का जाना पहचाना चेहरा है, ये उनका बॉलीवुड डेब्यू है, जो बिलाकश बेहतरीन है। दीपिका का तजुर्बा, उनके मौसमी के किरदार में दिखता है। टीटू शुक्ला बने तुषार पांडे ने भी अपने किरदार को बिल्कुल शिद्दत से जिया है। रघुबीर यादव, विरेंद्र सक्सेना इतने मंझे हुए एक्टर हैं कि आप उनसे कुछ भी करवा लीजिए, वो परफेक्ट ही होगा। सपना सैंड को बैक टू बैक मां के किरदार में देखने से आप बोर नहीं होंगे, क्योंकि वो कॉमेडी और इमोशन का डबल पंच लेकर चलती हैं। बिजेन्द्र काला ने अपनी कॉमिक टाइमिंग अच्छी तरह से दिखाई है।

टीटू अंबानी, छोटे से बड़े शहरों तक नौजवान आंख़ों में बड़े सपनों के लिए कुछ भी करने की कहानी तो कहती ही है, साथ में बेटियां की वो कश्मकश भी पेश करती है, जहां उनसे उम्मीद की जाती है कि नई गृहस्थी में जाने के बाद, वो अपने मां-बाप के बारे में ज़रा कम सोचें। फिल्म देखिए, ये थोड़ा हंसाएगी भी और समझाएगी भी।
टीटू अंबानी को 3 स्टार।
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