कहते हैं मोहब्बत में जादू होता है, ये आपसे वो करवा लेती है, जो आपने सपने में भी नहीं सोचा होता। नेटफ्क्लिस की जादूगर आपसे वायदा तो यही करती है, लेकिन फिल्म में अंदर ही एक बड़ी सीख है, कि प्यार असली होगा तो जादू भी असली होगा, यही जादूगर का अंजाम है। क्योंकि इस फिल्म में प्यार असली नहीं, तो जादू भी असली नहीं।
फिल्म देखने की बेकरारी ज़्यादा थी, कि पंचायत वाले जीतेंद्र कुमार फिल्म में हैं, फिल्म भी मध्य प्रदेश वाले छोटे से शहर नीचम के बैकग्राउंड वाली है। तो लगा कि कुछ तो होगा, ट्रेलर भी अच्छा कटा था, तो जादू होने की गुंजाइश थी। क्या ये जादू हुआ ? नहीं, बिल्कुल नहीं?
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खामी कहानी की है। और कहानी क्या है, वो ये है कि नीमच, जहां गली-मोहल्ले के लोगों पर भी फुटबॉल जुनून जैसा हावी है, वहां छोटा मीनू जादू में खोया हुआ है। मीनू की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वो अपनी चाहतों को लेकर कन्फ्यूज़ है। मतलब वो जो चाहता है, उसे चाहिए नहीं। जो चाहिए, वो मिलता नहीं। शहर के दूसरे लोगों की तरह मीनू के चाचा पर फुटबॉल का जादू चढ़ा है और मीनू पर जादू चढ़ा है – जादू का। वो जादूगर बनना चाहता है और बचपन के प्यार, इच्छा को इस जादू से जीतना चाहता है। लेकिन ना तो उसका जादू चलता है, ना प्यार। लेकिन मीनू, की एक खूबी है, कि वो हार नहीं मानता, ना प्यार में, ना जादू में। तो उसे दूसरी बार प्यार होता है डॉक्टर दिशा से, उधर चाचा प्रदीप, जो मोहल्ले की फुटबॉल टीम के कोच भी है, वो किसी भी हालत में इंटर मोहल्ला फुटबॉल कॉम्पटीशन – दाभोलकर कप जितना चाहते हैं। आखिर यही तो मीनू के पापा और कोच प्रदीप के बड़े भैया की आखिरी ख्वाहिश थी। मगर मीनू को कोई परवाह नहीं, उसे तो बस दिशा से शादी करनी है। थोड़े ट्विस्ट आते हैं, और मीनू के जादूगर गुरू, जो दिशा के पापा निकलते हैं वो मीनु से इस इंटर मोहल्ला फुटबॉल टूर्नामेंट कप जीतने की शर्त रखते हैं। यहां भी मीनू अपने ट्रिक्स लगाता है… लेकिन क्या दिशा का साथ उसे मिलता है ? यही है कहानी।
वैसे जादूगर की कहानी को गौर से देखिएगा, तो पता चलेगा कि ये सस्ते बजट की लगान है। लगान में भुवन, तीन गुना लगान से बचने के लिए अपने क्रिकेट टीम बनाता है। यहां मीनू के चाचा दाभोलकर कप जीतने के लिए मोहल्ला फुटबॉल टीम बनात हैं। इस टीम में कचरा भी है, जो मैच का रुख बदलता है साथ ही लक्खा भी है, जो अपने ही टीम को धोखा देकर मैच हराना चाहता है। वो धोखेबाज खुद मीनू है। अरे, क्या मैने फिल्म का सस्पेंस खोल दिया ? नहीं, फिर से बिल्कुल नहीं, क्योंकि इसमें कोई सस्पेंस नहीं।
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फिल्म में सबसे खूबसूरत है हिस्सा है, इस फिल्म के क्लाइमेक्स का गाना – क्या खेला रे शाबाश ? मतलब 2 घंटे 40 मिनट के बाद आपको लगता है कि कुछ तो देखने को मिला। इसमें भी पूरा लगान वाला फ्लेवर है।
फिल्म के डायरेक्टर हैं समीर सक्सेना, जो इस फिल्म में कमेंटेटर भी बने हैं और साथ ही डॉक्टर भी। तो जैसी उन्होने कमेंट्री की है, वैसी ही फिल्म बनाई है।
परफॉरमेंस पर आइएगा, तो जीतेंद्र कुमार ने जादूगर बनकर निराश किया है। जावेद जाफ़री इस फिल्म को संभाले रखने की कोशिश करते हैं, लेकिन ये कोशिश भी फिल्म की तरह लड़खड़ाती रहती है। आरुषी शर्मा को फिल्म में करने को तो बहुत कुछ मिला है, लेकिन वो कुछ खास कर नहीं पाई हैं।
अगर वीकेंड पर कुछ नहीं देखने को हैं, तो आप जीतेंद्र कुमार के वैसे फैन हैं, जैसे हम हैं, तो 2 घंटे 40 मिनट नेटफ्लिक्स पर ये समझने के लिए खर्च कर सकते हैं कि गलती किसी से भी हो सकती है।
जादूगर को 2 स्टार।
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