सुभाष के. झा
बॉलीवुड ने समय-समय पर जातिवाद जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बेबाकी से अपनी बात रखी है। कई फिल्में ऐसी बनीं, जिन्होंने सामाजिक असमानता, जाति-आधारित भेदभाव और वर्गीय उत्पीड़न पर गहराई से प्रहार किया है। अंबेडकर जयंती के मौके आइए ऐसे ही कुछ चुनिंदा हिंदी फिल्में, जो डॉ. अंबेडकर की सोच और सामाजिक बराबरी के सिद्धांतों पर बनी हैं, उनके बारे में बताते हैं।
‘सुजाता’
बिमल रॉय की यह क्लासिक फिल्म जाति व्यवस्था पर सीधा प्रहार करती है। नूतन ने एक छोटी जाति की अनाथ लड़की का किरदार निभाया है। इस किरदार को ऊंचे परिवार की एक महिला गोद लेती है। मगर जब वह एक ब्राह्मण युवक से प्रेम करती है, तो समाज छोटी सोच सामने आ जाती है। गांधी जी की मूर्ति के नीचे सुजाता का भावुक दृश्य आज भी जातीय असमानता पर सोचने को मजबूर करता है।
‘बैंडिट क्वीन’
शेखर कपूर की यह फिल्म भारतीय सिनेमा में क्रांति की तरह थी। यह उच्च जातियों के दंभ और ब्राह्मणवादी सोच पर करारा प्रहार करती है। फूलन देवी की सच्ची कहानी पर आधारित इस फिल्म में बलात्कार को उत्पीड़न के हथियार के रूप में दिखाया गया है। निर्देशक का भी मानना है कि उन्होंने खुद भी इस फिल्म को गुस्से में बनाई थी।
‘अंकुर’
श्याम बेनेगल की पहली फिल्म ‘अंकुर’ भारत के गांव की जमींदारी व्यवस्था की असमानता पर बेस्ड है। साधु मेहर, शबाना आजमी और अनंत नाग के सशक्त जैसे स्टार्स की इस फिल्म में एक गरीब किसान को दिखाया गया है। इस फिल्म में आखिरी सीन एक बच्चे द्वारा पत्थर से ज़ुल्म की खिड़की तोड़ते हुए दिखाया गया है।
‘मसान’
नीरज घेवन की यह फिल्म बनारस की एक ऐसी दुनिया दिखाती है जहां जाति की बेड़ियां लोगों की किस्मत तय करती हैं। विक्की कौशल और श्वेता त्रिपाठी की मासूम लव स्टोरी का टूट जाना जिसकी वजह से कुछ कर गुजरने की कोशिश करना। सब कुछ एक अनकहे दर्द के साथ सामने आता है।
‘सद्गति’
टीवी की इस फिल्म ओम पुरी ने एक छोटी जाति के मजदूर की भूमिका निभाई है। ये एक ब्राह्मण से मदद की उम्मीद लेकर जाता है और बाद में वह शोषण की इंतहा झेलते हुए वहीं दम तोड़ देता है। मोहन अगाशे ने ब्राह्मण की भूमिका में जातीय क्रूरता को सहजता से दर्शाया। यह फिल्म जातीय हिंसा का सबसे नग्न और मार्मिक चित्रण है।
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‘आर्टिकल 15’
अनुभव सिन्हा के डायरेक्शन में बनी इस फिल्म में आयुष्मान खुराना एक ईमानदार आईपीएस अधिकारी की भूमिका निभाते हैं। वह जातीय हिंसा के बीच खड़े होते हैं। बलात्कार, भेदभाव और अन्याय की भयावह तस्वीर दिखाते हुए फिल्म सवाल छोड़ती है कि क्या हम वाकई बराबरी वाले समाज की ओर बढ़ रहे हैं? फिल्म में अपराधियों की भाषा और रवैया बता देता है कि समाज की सोच अब भी नहीं बदली।
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