Swatantra Veer Savarkar Movie Review: (Navin Singh Bhardwaj) सावरकर फिल्म की अनाउंसमेंट से लेकर, इसके डायरेक्टर बदलने तक। प्रोड्यूसर्स की तकरार से लेकर क्रेडिट्स लेने की लड़ाई तक और फिर रिलीज के मुहाने पर खड़ी फिल्म को बिल्कुल आखिरी लम्हें में सेंसर सर्टिफिकेट मिलने की कहानी तक। रणदीप हुड्डा ने जैसे वादे किए थे, स्वतंत्र वीर सावरकर बिल्कुल वैसी फिल्म है।
जहां सावरकर ही सबसे बड़े हीरो हैं, भगत सिंह को भी उन्होने देश भक्ति के लिए प्रेरित किया, जिसका कई कोई साक्ष्य नहीं। ये फिल्म दिखाती है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भी सावरकर ने सशस्त्र राजीनितिक क्रांति के लिए प्रेरित किया… तो लगता है कि रिसर्च के तौर पर, रणदीप हुड्डा ने उन कहानियों को भी अपनी फिल्म में पिरो दिया है, जिसे खुद नेताजी के पर पोते चंद्र कुमार बोस ने भी झूठा करार दे दिया है। साक्ष्यों पर ना जाकर फिल्म में क्या दिखाया गया है और कैसे दिखाया गया है, और फिर स्वतंत्र वीर सावरकर कैसी बन पड़ी है, इसे जान लेते हैं।
क्या कहती है कहानी
कहानी की शुरुआत 1897 के पुणे से होती है जहां प्लेग जैसी महामारी छाई हुई है। वहीं चापेकर बंधुओं दामोदर हरि चापेकर, बालाकृष्ण हरि चापेकर और वासुदेव हरि चापेकर का स्वतंत्रता के बलिदान को भी दिखाया गया है। कहानी के शुरुआत में दामोदर सावरकर की शादी दिखाई जाती है। सावरकर की शादी यमुनाबाई (अंकिता लोखंडे) से होती है। बचपन से ही आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़ के हिस्सा लेने वाले दामोदर सावरकर 1902 में अपने कॉलेज में अभिनव भारत सीक्रेट सोसाइटी बनाते हैं।
इसके बाद बालगंगाधर तिलक की सहायता से वो 1905 में लंदन में बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए जाते हैं, जहां मैडम कामा और मदनलाल धींगडरा मृणाल दत्त के साथ मिलकर फ्री इंडिया सोसाइटी की स्थापना करते हैं। वहीं एक साल बाद उनकी मुलाकात मोहनदास करमचंद गांधी से होती है, जहां दोनों के भारत को आजाद करने की सोच बिल्कुल भी नहीं मिलती। फ्री इंडिया सोसाइटी के वजह से विनायक दामोदर सावरकर को 1911 में काले पानी की सजा हो जाती है।
कहानी यहां से आगे भी जाती है, काला पानी से निकलने के लिए दया याचिकाओं की भी बात की गई है। इसके अलावा उनके पीछे के मकसद की भी बात की गई है। जेल से बाहर निकलने के बाद सावरकर की राजनीतिक यात्रा भी इस फिल्म का हिस्सा है। 2 घंटे 58 मिनट तक ये कहानी आपके उपर जानकारियों की बम बार्डिंग करती है और धीरे-धीरे आगे बढ़ती है।
कैसी है फिल्म की डायरेक्शन और राइटिंग
फिल्म का लेखन और डायरेक्शन दोनों रणदीप हुड्डा ने की है, इस फिल्म के जरिए रणदीप डायरेक्शन की दुनिया में अपना कदम रख चुके हैं। फिल्म में रणदीप ने सावरकर की जीवनी से जुड़े कुछ ऐसे भी पल रखे हैं, जिन्हें समझने कि लिये आपको शायद वापस घर आ कर रिसर्च करना पड़ सकता है। लेखन के मामले में रणदीप ने फिल्म ना सिर्फ लंबी बनाई है, बल्कि कई जगह पर जबरदस्ती के इमोशन मोमेंट डालने की कोशिश की है। कई ऐसे भी सीन्स हैं, जहां रणदीप इमोशन दिखाने के चक्कर में ड्यूरेशन भूल गए हैं।
भाषण देने वाले सीन में कैमरे में देखकर कई मिनट तक बात करना हो या क्रांतिकारीयों के फांसी लगने वाला सीन, रणदीप इसके बैकग्राउंड स्टोरी बिल्डअप करने में पीछे रह गए। काले पानी की सजा काट रहे रणदीप ने वहां की दर्दनाक कहानी को अच्छे से पेश किया है। वहीं, रणदीप हुड्डा ने महात्मा गांधी को फिल्म में ग्रे शेड में दिखाया है, जो इससे पहले कभी नहीं हुआ। अब आप इसे रणदीप हुड्डा की हिम्मत भी कह सकते हैं, या फिर प्रोपोगैंडा भी।
देखने लायक रणदीप हुड्डा की एक्टिंग
रणदीप हुड्डा ने विनायक दामोदर सावरकर के किरदार को बखूबी से निभाया है। वही यमुनाबाई सावरकर के किरदार में अंकिता लोखंडे ने अच्छा काम किया है। अंकिता लोखंडे के सीन्स भले ही फिल्म में कम थे पर उनका काम दिख रहा है। गणेश दामोदर सावरकर या बाबराव सावरकर के किरदार में अमित स्याल की एक्टिंग देखने लायक है। फिल्म के बाकी कलाकार ने भी अच्छा काम किया है।
क्यों देखनी चाहिए ये फिल्म
इतिहास की एक खूबी होती है कि इसे हर कोई अपने हिसाब से बताता और दिखाता है। ये जरूरी नहीं है कि हम और आप इससे सहमत ही हों। अगर आपको इतिहास में इंटरेस्ट है और दूसरों के नरैटिव भी सुनने के शौकीन हैं, तो आप ये स्वतंत्र वीर सावरकर देख सकते हैं।
(फिल्म को 2 स्टार मिले हैं)