Qala Review, Ashwani Kumar: कला, जो शून्य से शुरू होती है और कभी तारीफ़ों पर खिलती है, कभी ठोकरों से बिखरती है और अपना असर सब पर छोड़ती है। नेटफ्क्लिस पर रिलीज़ हुई कला को देखना अपने आप में एक तजुर्बा है। 1930 में बेस्ड ये कहानी धीरे-धीरे चढ़ती है, झटके नहीं देती, आपको अहसास कराती है कि एक बेटी का दर्द, जो अपनी मां की खुशी, उसका प्यार चाहती है… लेकिन ये सब, उसे जीते जी तो नसीब होने वाला नहीं। एक मां का दर्द, जो जुड़वा बच्चों को जन्म देने वाली थी, लेकिन उसकी बाहों में सिर्फ़ एक बेटी आई, जिसने कोख के अंदर कमज़ोर बेटे का खाना छीन लिया।
फिल्म की शुरुआत ही अनोखी है, जिसमें आप तय करने की हालात में नहीं होते कि इस बच्ची का क्या होने जा रहा है ? और इसकी गलती क्या है ? डायरेक्टर शुरुआत में ही मां उर्मिला को, एक तकिया लेकर पालने में पड़ी बच्ची की सांस घोटते दिखाती है… मगर कला ज़िंदा है, तो आपके मन में आख़िर तक ये सवाल होता है कि वो क्या था, जो आपने शुरुआत में देखा। शायद पूरी फिल्म में कला की उम्मीदें घोटना, उसे प्यार ना देना, उसकी गायिकी की जगह, सोलन के एक अनाथ बच्चे जगन को घर में और परिवार की गायिकी की विरासत में जगह देना ही, उस सीन के पीछे छिपा मैसेज था।
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कला, औरत के खिलाफ़, औरत की भी कहानी है। जहां मां उर्मिला, बेटी के फिल्मों में गाने के खिलाफ़ है, क्योंकि वो उसे पंडित बनाना चाहती है, कोई बाई नहीं। वो उसकी शादी कराना चाहती है, अपने अजन्मे बेटे के ना होने का ज़िम्मेदार बेटी को मानती है। फिर बाद में एक अनाथ बच्चे – जगन, जिसकी गायिकी में भगवान बसता है, जो अपना सबसे बड़ा हुनर गायिकी को मानता है और गायिकी को सांस लेने जैसा समझता है… उसे इंडस्ट्री में सिंगिंग ब्रेक दिलाने के लिए, मशहूर सिंगर चंदन लाल सान्याल के करीब तक चली जाती है।
कला, अपनी कमज़ोरियों को छिपाकर कामयाबी पाने का छोटा रास्ता यही से सीखती है, जो बाद में उसकी ज़िंदगी का नासूर बन जाता है। जगन की काबिलियत और मां का उसके लिए प्यार, कला की जलन की वजह है, इस दूर करने के लिए कला जो रास्ता अख़्तियार करती है, वो तमाम शोहरत, तमाम कामयाबी और अवॉर्ड्स पाने के बाद भी उसे खोखला करता जाता है।
कला की इस कहानी के किरदार में सुमंत कुमार जैसा म्यूज़िक डायरेक्टर है, जो ब्रेक देने के एवज़ में कला का फायदा उठाता है और लिरिसिस्ट मजरूह है, जो अपने अल्फाजों से कला को सहारा देता है कि दौर बदलेगा, दौर की ये पुरानी आदत है।
धीरे-धीरे पकती कला की कहानी, फ्लैशबैक्स के साथ चलती है, जिसमें कामयाबी पाने के बाद भी कला, बीते वक्त की यादों में गर्त होती जा रही है, सबकुछ पाने के बाद भी वो अपनी मां के करीब नहीं पहुंच पा रही है। इसके साथ इस फिल्म की सेट डिज़ाइनिंग कमाल है। सुमंत कुमार के स्टूडियों की छत से हावड़ा ब्रिज बनाने के लिए लोहे का स्ट्रक्चर, उस पर होती खटपट की आवाज़ और कला का समझौता करना सिनेमैटोग्राफ़ी, डायरेक्शन और आर्ट डारेक्शन का कमाल नमुना है। हिमाचल और कोलकाता के बीच तैरती इस कहानी में चीरती बर्फ़ सी ठंड है। लाइटिंग का कमाल बेहद खूबसूरत है। लेकिन कला की सबसे बड़ी खूबी है उसका म्यूज़िक, घोड़े पर सवार सैंया, हंस अकेला, फेरो ना नज़रिया, रूबाईंयां ऐसे गाने हैं, जो आपके साथ रह जाते हैं। अमित त्रिवेदी ने कला में संगीत का ऐसा संसार रचा है, जो आपको मोह लेगा।
डायरेक्टर अन्विता दत्त की कहानी और डारेक्शन, कला से आपको बांधे रखती है। परफॉरमेंस के मामले में तृप्ति डिमरी ने इस किरदार को अपने रेशे-रेशे में समा लिया है। त़ृप्ति की आंखें, उनका शरीर, सब कुछ कला के रंग में रंगा हुआ नज़र आता है, मानो दोनो एक ही हों। स्वास्तिका मुखर्जी कला की मां के किरदार में अपने पूरे शबाब पर हैं, उनके चेहरे की सख़्ती और आंख़ों की मायूसी, इस किरदार से ना आपको नफ़रत करने देता है, ना प्यार। जगन बने बाबिल को ना बहुत ज़्यादा दिखाया गया है, ना छिपाया गया है, लेकिन बाबिल इस महिला प्रधान फिल्म में भी पूरी तरह से चमके हैं। अमित सियाल, समीर कोचर और वरुण ग्रोवर ने कला की कहानी को जुबां दी है।
नेटफ्लिक्स पर कला स्ट्रीम हो रही है, थोड़ा टिककर इसे देखिए…. क्योंकि ये फिल्म नहीं, कला है।
कला को 4 स्टार।
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