चुप – रिवेंज ऑफ़ दि ऑर्टिस्ट, नाम से ही साफ़ है कि ऑर्टिस्ट है और क्रिटिक्स का दुश्मन है। लेकिन कौन से क्रिटिक्स का ? ये इस फिल्म का सबसे बड़ा प्वाइंट है।
डायरेक्टर आर. बाल्की फिल्म इंडस्ट्री का एक ऐसा नाम हैं, जो सब्जेक्ट चुनते हैं, तो इस हिसाब से कि आपका चौंकना लाज़मी है। बतौर डायरेक्टर उन्होने डेब्यू किया, तो अमिताभ बच्चन को बुढ़ापे में चीनी कम का फील दिला दिया। उनकी पहली फिल्म को बहुतों ने पसंद किया, तो बहुत सारे क्रिटिक्स के सिर के उपर से वो फिल्म निकल गई। हांलाकि चीनी कम, भले ही अब एक लैंड मार्क फिल्म ज़रूर हो, लेकिन तब बॉक्स ऑफिस पर ये अबव एवरेज थी। फिर पा आई, तो किसी को शक़ नहीं रह गया कि बाल्की एक शानदार डायरेक्टर हैं।
खैर इस बार बाल्की ने एक थ्रिलर स्टोरी का ताना-बाना बुना, जिसमें सस्पेंस का थोड़ा मसाला छिड़का। कहानी शुरु होती है, एक नामी फिल्म क्रिटिक के मर्डर से, जिसने एक फिल्म को स्टार जितने कम स्टार दिए, अपने रिव्यू में फिल्म का जैसे पोस्टमार्टम किया, उसके मुताबिक ही क़ातिल ने उसके सिर पर स्टार बनाए, और उसके शरीर का ऐसा हाल किया, कि थियेटर में बैठे दर्शक सहम जाएं। वैसे सीरियल किलर्स पर, हमने कितनी ही फिल्में देखी हैं… लेकिन हर फिल्म में किलर की साइकी और मोटिव अलग-अलग होता है। इस केस के इन्वेस्टीगेशन की ज़िम्मेदारी आती है मुंबई क्राइम ब्रांच के हेड अरविंद पर।
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दूसरी ओर पैरलल स्टोरी चल रही है – डैनी फ्लॉवर्स के मालिक डैनी की, जो शुरुआत से ड्यूल पर्सनैलिटी को लेकर चेलता है। डैनी की मुलाकात होती है एंटरटेनमेंट रिपोर्टर नीला से, जो अपने मां के लिए ट्यूलिप फ्लॉवर्स डैनी फ्लावर्स से खरीदती है। ये स्टोरी लव स्टोरी में बदलती है।
बैक टू बैक फिल्म क्रिटिक्स के क़त्ल होते जा रहे हैं। मुंबई फिल्म इंडस्ट्री और क्रिटिक्स के बीच पैनिक मचा हुआ है। इन्वेस्टीगेशन बता रहा है, कि जिस भी फिल्म क्रिटिक का रिव्यू, क़ातिल की सोच से मैच नहीं करता, वो सनकी क़ातिल उसका बेरहमी से क़त्ल कर देता है।
फिल्म की शुरुआत से मशहूर फिल्म मेकर और एक्टर गुरुदत्त का रिफरेंस फिल्म में है। उनकी पुरानी फिल्मों के गाने, मुंबई की गलियां – किसी भी सिनेमा लवर्स को इस फिल्म से कनेक्ट करा सकती सकती हैं। साथ ही गुरुदत्त की फिल्म कागज़ के फुल का रिफरेंस, फर्स्ट हॉफ़ में फिल्म को बिल्कुल इंट्रेस्टिग बनाकर रखता है।
मुश्किल इसके बाद आती है, जब क़ातिल की आइटेंटिटी फर्स्ट हॉफ़ के क्लाइमेक्स में ही खुल जाता है।
ऑडियंस को पता है कि ये क़ातिल है, लेकिन पुलिस और क्रिमिनल साइकोलॉजिस्ट जेनोबिया को किलर की पहचान अभी भी करनी है और उसकी बैकस्टोरी जाननी है। सेकेंड हॉफ़ में क़ातिल को लेकर हो रही भागदौड़ से पहले-पहले ही ऑडियंस को पता है कि होने जा रहा है। ये किसी भी सस्पेंस थ्रिलर फिल्म की बड़ी ख़ामी है। लेकिन बावजूद इसके, जिस तरह से पुलिस, क़ातिल के दिमाग़ से खेलने के लिए नीला का इस्तेमाल करती है… डायरेक्टर बाल्की थोड़ी दिलचस्पी बनाए रखने में कामयाब हुए हैं।
फिल्म की कहानी अच्छी है, मैसेज के साथ है। स्क्रीनप्ले को थोड़ा और दुरुस्त करते, तो फिल्म सेकेंड हॉफ़ में खींचतान से बच जाती। डायरेक्टर आर बाल्की, अपने लकी मास्कॉट अमिताभ बच्चन के कैमियो को ले ही आए हैं। और सीनियर बच्चन ने इस फिल्म में क्रिटिक्स की साइड ली है। यानि फिल्म बैलेंस्ड है, इसमें दोनो साइड के वर्ज़न है।
तकरीबन 2 घंटे 10 मिनट की चुप में सबसे ड्रामैटिक मोमेंट तब आता है, जब क्रिटिक्स और फिल्म प्रोड्यूसर्स के बीच मीटिंग होती है। उस सीन को पूरी तरह से अवाइड किया जा सकता था। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोरी और गाने, दोनो ही बेहतरीन है। साहिर लुधियानिवी के फिल्म प्यासा के गाने – ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, आपको सिनेमा की दुनिया के अंदर लेकर जाता है।
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परफॉरमेंस के मामले में चुप – रिवेंज ऑफ़ द ऑर्टिस्ट शानदार है। परफेक्ट कास्टिंग है। दुल्कर सलमान ने फिर से साबित किया है कि एक्सप्रेशन्स के मामले वो गरगिट जैसे हैं, तुरंत रंग बदलते हैं। श्रेया धनवंतरी बेहद खूबसूरत लगी हैं, एंटरटेनमेंट रिपोर्टर के तौर पर, उनकी डिटेलिंग कमाल है। दुल्कर और श्रेया की केमिस्ट्री, चुप जैसी डार्क फिल्म में ताजी हवा के झोके जैसा है। सनी देओल, क्राइम ब्रांच के ऑफिसर के तौर पर बहुत जंचे हैं। बिना अपनी मसल फड़काए, एक भी मुक्का चलाए, उन्होने स्क्रीन पर अच्छा पंच मारा है। क्रिमिनल साइकोलॉजिस्ट जेनोबिया के कैरेक्टर में पूजा भट्ट दमदार लगी हैं। हांलाकि उनके चाहने वाले पूजा की ऐसी रंगत देखकर, थोड़े उदास ज़रूर होंगे।
चुप एक दिलचस्प फिल्म है। आइडिया के लेवल पर अलग है। खींचे हुए सेकेंड हॉफ़ के बाद भी, वन टाइम वॉच है।
चुप – रिवेंज ऑफ़ दि ऑर्टिस्ट को 3 स्टार।
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