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Phule Review: झिंझोड़ कर रख देगी देश के पहले ‘महात्मा’ की कहानी, पढ़ें पूरा रिव्यू

Phule Review/Ashwani Kumar: बॉलीवुड स्टार्स प्रतीक गांधी और पत्रलेखा स्टारर 'फूले' काफी विवाद के बाद आखिरकार आज 25 अप्रैल 2025 को सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है। इस फिल्म में फुले भारत की वो 100 साल से ज्यादा पुरानी तस्वीर दिखाती है, जहां अंग्रेजों की बेड़ियों से पहले अपने समाज की बेड़ियों की आजादी की लड़ाई देखकर आप कांप जाते हैं।

phule movie
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Movie name:Phule
Director:Anant Narayan Mahadevan
Movie Casts:Pratik Gandhi, Patralekha, Vinay Pathak, Sushil Pandey, Darsheel Safari, Joysen Gupta, Suresh Vishwakarma and Alex O'Neill

Phule Review/Ashwani Kumar: इतिहास में झांका क्यों जाता है? ताकि हम समझ सकें, कि आज जो आजादी, संस्कार, सिद्धांत, धर्म और सहूलियतें हमें मिली हैं, उनकी कीमत क्या है। छावा आई तो हमने देखा कि दक्षित का शिवा, मुगल बादशाह औरंगजेब को रोकने के लिए कैसे शेर की तरह लड़ा और ये देखकर देशभक्ति जाग गई। यही सिनेमा की ताकत है और यही ताकत अब हमें उस इतिहास में झांकने का मौका दे रही है, जहां 177 साल पहले तक भारत में लड़कियों के पढ़ने तक पर पाबंदी थी। ऐसे में महाराष्ट्र के सतारा में ज्योतिबा फुले ने अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के साथ देश का पहला स्वेदशी स्कूल खोला, जो खासतौर पर लड़कियों को पढ़ाने के लिए था। आज सिविल सर्विसेज से लेकर, एयफोर्स-आर्मी, कॉरपोरेट्स, आईआईटी-आईआईएम में जब लड़कियां अपना वर्चस्व जमा रही हैं, तो अनंत महादेवन की फुले बताती है कि इस आंदोलन की शुरुआत कहां से और कितनी मुश्किलों से हुई।

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‘फुले’ की कैसी है कहानी?

फिल्म फुले की शुरुआत होती है, 128 साल पहले 1897 में महाराष्ट्र के पूणे में बुबोनिक प्लेग के कहर से। कोरोना जैसा ही कहर तब प्लेग ने फैलाया था। ऐसे में गांव से कई किलोमीटर दूर तक प्लेग का शिकार हुए बच्चे को कंधे पर उठाए, सावित्री बाई फुले मेडिकल कैंप पहुंचती हैं और वहां से यादों में शुरू होती है 49 साल पुरानी कहानी जब समाज में लड़कियों को शिक्षा के विरुद्ध नियमों के बाद भी ज्योतिबा फुले अपनी बाल-पत्नी को अंग्रेज़ी पढ़ाने की शुरुआत करते हैं। इस कहानी में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले की वो संघर्ष यात्रा दिखाई गई है, जहां अंग्रेजों की सदियों पुरानी गुलामी से आगे महिलाओं को हजारों साल की गुलामी से आजादी दिलाने की कोशिश शुरू होती है।

सावित्री बाई फुले के साथ ज्योतिबा देश का पहला स्वदेशी स्कूल शुरू करते हैं, जहां लड़कियों को शिक्षित किया जाता है। मगर तब तक घर में बच्चे पैदा करने, खाना बनाने, सफाई करने को ही महिलाओं की जिम्मेदारी और धर्म के नाम पर उन पर थोप दिया गया था। बाह्मणों के नियम ऐसे थे जहां औरतों को पढ़ने-लिखने की आजादी देने की बात सोचना भी पाप था। ऐसे में ज्योतिबा और सावित्री बाई फुले के स्कूल के खिलाफ पूरा समाज क्या, उनके घर वाले तक आकर खड़े हो जाते हैं, ब्राह्मणों का एक झूंड लड़कियों की शिक्षा के पाप की नारेबाजी करता हुआ स्कूल तोड़ देता है और ज्योतिबा की पिटाई करता है। सावित्री बाई फुले के साथ, स्कूल में छिप-छिप कर पढ़ने आई लड़कियां खुद को कमरे में बंद कर सिसकती रहती हैं।

क्यों घर छोड़ते हैं ज्योतिबा फुले

पंचायत में ज्योतिबा को उनके पिता को भी शर्मिंदा करती है और उनका हुक्का पानी बंद कर देती है। परिवार को ज्योतिबा के विचारों की सजा ना झेलनी पड़े, इसलिए वो अपनी पत्नी के साथ घर छोड़ देते हैं। घर छोड़कर वो स्कूल के दोस्त उस्मान शेख और उसकी बहन फातिमा के घर पहुंच जाते है। जाति-पात, छुआ-छुत के नियमों के टकराते हुए ज्योतिबा और सावित्री, उस्मान और फातिमा के साथ शिक्षा और अधिकार की अलख जगाते हैं। इसी के साथ सावित्री बाई फुले और फातिमा को अंग्रेजों के मिशिनरी टीचर्स स्कूल में टीचर ट्रेनिंग प्रोग्राम में दाखिल कराते हैं। यहां से देश को उसकी महिला शिक्षक सावित्री बाई फुले मिलती हैं।

दर्द और संघर्ष की सच्ची कहानी 

फुले की कहानी सिर्फ महिला शिक्षा के आंदोलन की कहानी नहीं है, ये कहानी है परंपरा के नाम पर जाति, वर्ण, विधवा प्रथा और बरसों से भारत के नसों में बहने वाली वंचित-शोषितों को बेड़ियों से आजादी की कहानी है। ये बहस, जो आज सोशल मीडिया के युग में इंटेलेक्चुअल टॉक मानी जाती है, 150 साल पहले तक उसके खिलाफ आवाज उठाने वाले को किन हालातों से गुजरना पड़ा होगा, ये सोचकर रूह कांप जाती है। फुले, उस दर्द और संघर्ष की जीती-जागती तस्वीर है। लड़कियों के लिए स्कूल से लेकर, छोटी जाति वालों को कुएं से पानी लेने के लिए मिलने वाली गालियों तक, विधवाओं के लिए सम्मान, रेप विक्टिम्स के लिए आश्रम, उनके बच्चों के लिए शिक्षा, अकाल में गरीबों के लिए अनाज, शूद्र जाति की शादियों में ब्राह्मणों के छुआ-छुत वाले नियमों के खिलाफ, सत्यशोधक समाज की स्थापना, जहां दलितों से छुआ-छुत का कोई विधान ना हो। फुले भारत की वो 100 साल से ज्यादा पुरानी तस्वीर दिखाती है, जहां अंग्रेजों की बेड़ियों से पहले अपने समाज की बेड़ियों की आजादी की लड़ाई देखकर आप कांप जाते हैं।

देश के पहले ‘महात्मा’ बने फुले

महात्मा गांधी से भी पहले ज्योतिबा फुले को उनके समाज सुधारक कार्यों की वजह से महात्मा की उपाधी, सावित्री बाई फुले का सवर्ण की धमकी के बाद, उसके गाल पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ मारना, जैसे दिखाता है कि ये लड़ाई जाने कब से चलती आ रही है और जाने कब तक चलती रहेगी। मौजम बेग के साथ मिलकर अनंत महादेवन की लिखी इस कहानी में हर एक सीन, एक डायलॉग गहरा असर छोड़ता है। साल 1848 से लेकर साल 1897 तक की फुले को कहानी को दिखाने में कोई मिलावट नहीं हुई है और इसका हर सीन, हर सेट, हर लोकेशन में डायरेक्टर की डिटेलिंग साफ देखने को मिलती है।

कैसी है स्टार्स की एक्टिंग 

फिल्म में प्रतीक गांधी और पत्रलेखा लीड रोल में हैं, जिन्होंने दंपति महात्मा ज्योतिराव फुले और सावित्री बाई फुले का किरदार निभाया है। प्रतीक इस रोल में बिल्कुल फिट बैठे हैं और पत्रलेखा के करियर की ये बेस्ट परफॉरमेंस है। पत्रलेखा को देखकर अहसास होता है कि कोई कलाकार किसी किरदार के लिए कहां तक जा सकता है।ब्रिटिश कलेक्टर बने एलेक्स ओ नेल ने भी बेहतर काम किया है और गोविदराव फुले बने विनय पाठक ने भी अपने चेहरे और हाव-भाव के साथ अपने किरदार को पर्दे पर उतारा है। यशवंत फुले बने दर्शील सफारी ने डायलॉग्स में कम, एक्टिंग से ज्यादा लोगों पर असर छोड़ा है।

177 साल बाद भी फुले की कहानी को ब्राह्मण विरोधी बताकर सेंसर करने की ढेरों कोशिश हुई, बहुत सारे कट्स भी लगे हैं। इस संघर्ष में बहुत कुछ अभी भी नहीं बदला है, हां शिक्षा की जो अलख ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले ने जगाई, वो अब एक मजबूत आवाज बन गई है। फुले एंटरटेन नहीं करती, आपको झिंझोड़ देती है। देश की पहली महिला शिक्षिका की जयंती पर सोशल मीडिया पोस्ट लगाने वालों को उनके संघर्ष की कहानी जाननी चाहिए, ये एक जरूरी फिल्म है, जिसे देखना और दिखाया जाना ही चाहिए।

फुले को 3.5 स्टार।

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First published on: Apr 25, 2025 12:09 PM

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