The Signature Film Review/ Ashwani Kumar: भगवान दुश्मन को भी अस्पताल का मुंह ना दिखाए कहने वाले हम सब हैं। लेकिन ये अलग बात है कि अस्पतालों में पैसे भरकर अपनों की जिंदगी बचाने की लड़ाई तकरीबन हम सब ने लड़ी है, जहां जवाब कुछ मिलता नहीं.. मायूसी से नाता टूटता नहीं, उम्मीद बार-बार टूटने को होती है और हम अपनों की सांसों के लिए लड़ते रहते हैं।
रिटायर्ड लाइब्रेरियन की कहानी
अनुपम खेर की फिल्म ‘द सिग्नेचर’ जैसे बढ़ती उम्र के दर्द और पेड़ों के सूखे पत्तों सी झड़ती ज़िंदगी के बीच, लड़ते-भिड़ते एक रिटायर्ड लाइब्रेरियन की कहानी है। रिटायरमेंट के बाद अरविंद ने अपनी पत्नी मधु के कहने पर फ्लैट की ज़िंदगी से निकलकर गांव में आंगन वाला एक घर बनाया है। अब मधु ने अरविंद के साथ दुनिया घूमने का प्लान बनाया है। पूरा परिवार उन्हें एयरपोर्ट छोड़ने आया है, मगर उस खुशी के लम्हे में मधु चेक-इन की लाइन में बेहोश होती है और अरविंद के ज़िंदगी की, रिश्तों की, समाज में रिटायरमेंट के बाद बुजुर्गों के अस्तित्व की परीक्षा शुरू हो जाती है।
ड्रामा और इमोशन से भरपूर ‘द सिग्नेचर’
ब्रेन हैमरेज के स्ट्रोक के बाद मधु की सांसे वेंटीलेटर के सपोर्ट से चल रही हैं। और इन सांसों को चलाए रखने के लिए अरविंद को पैसों की ज़रूरत है, जहां उनका बेटा भी साथ छोड़ देता है। सिग्नेचर की कहानी में कई बार ऐसे लम्हें आते हैं कि जिसमें आपका दिल जैसे हाथों में पकड़कर निचोड़ दिया गया है। जब डॉक्टर बने मनोज जोशी बताते हैं कि डॉक्टर एक प्रोडक्ट होता है, जिस पर इन्वेस्टमेंट किया गया है, तो उम्मीदें जैसे चकनाचूर हो जाती हैं। ‘DNR’ यानि ये डिस्क्लेमर की अगर मरीज की सांसे खुद ब खुद बंद हो जाएं, तो उसे बचाने के लिए वेंटीलेटर का सहारा ना लिया जाए, उस पर सिग्नेचर करते कंपकपाते हाथों को देखकर आपका टूटकर बिखर जाते है।
डायरेक्टर-राइटर ने किया शानदार काम
मेडिकल बिजनेस की कलई खोलती – राइटर – डायरेक्टर गजेंद्र अहीरे ने द सिग्नेचर में रिश्तों के उन धागों को भी खोलकर रख दिया है, जो आज के समाज में बच्चों से उम्मीदों की खूबसूरत तस्वीरों का छनाक से टूट जाने जैसा है। रनवीर शौरी के गेस्ट अपीयरेंस के ट्रैक में भी, आपको अहसास होता है कि एक मरीज का रिश्तेदार, अस्पताल के कमाऊ सिस्टम के आगे कितना बेबस होता है। अंबिका बनी महिमा चौधरी का ट्रैक, द सिग्नेचर की कहानी में दर्द और उम्मीद दोनो लेकर आता है। कैंसर से जूझती अंबिका के बाल जब हटते हैं, तो जैसे लगता है कि समाज के उपर चमकती खाल हट गई है।
पूरी फिल्म है अनफिल्टर्ड
गंजेंद्र अहीरे ने द सिग्नेचर को कमर्शियल बनाने की कोशिश नहीं की है, बल्कि इसे एक खिड़की जैसा बनाया है, जिसमें लगता है कि सब कुछ आंखों के सामने घट रहा है, एकदम से अनफिल्टर्ड। डायलॉग्स भी उतने ही सीधे, जैसे हम आम ज़िंदगी में बोलते हैं। और यकीन मानिए कि इतना सीधा, इतना सिंपल होना है, बहुत-बहुत मुश्किल है।
अनुपम खेर की दमदार एक्टिंग
अरविंद के रोल में द सिग्नेचर में अनुपम खेर अपनी 525वीं फिल्म कर रहे हैं। और, इस फिल्म में उनकी अदाकारी देखकर आपको उनकी पहली फिल्म सारांश की झलक दिखती है। लगता है ज़िंदगी में छोटी-छोटी खुशियां तलाशने वाला एक शख़्स, कैसे अपनी ज़िंदगी में सच, ईमानदारी, रिश्तों को निभाते हुए भी टूट जाता है। कमाल, कमाल, कमाल का काम है अनुपम खेर का।
फिल्म की मजबूत कड़ी बनीं महिमा चौधरी
महिमा चौधरी, इस फिल्म की दूसरी सबसे मज़बूत कड़ी है। अंबिका के रोल में महिमा चौधरी ने अपना सच जैसे बाहर निकालकर रख दिया है, जो बहुत-बहुत चुभता है। रनवीर शौरी का काम बहुत अच्छा है। अरविंद के दोस्त प्रभाकर बने अन्नू कपूर ज़रा ज़्यादा ड्रामैटिक से लगते हैं।
ज़ी5 पर 100 मिनट की द सिग्नेचर, सच की खिड़की जैसी है, जिसे खोलकर देखना मस्ट है।
4 स्टार
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