Vedaa Movie Review: वेदा एक मास्टर पीस है या मिस फायर? रिव्यू पढ़कर करें फैसला
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Vedaa Movie Review/Ashwani Kumar: वेदा के बारे में लिखने में वक्त लगा.. क्योंकि इसके डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, एक्टर – वेदा की कहानी को रियलिज़्म के पास बताते रहे हैं। असली घटनाओं पर आधारित बताते रहे हैं, लेकिन फिल्म देखने के बाद आपको अहसास होता है कि ये हो क्या रहा है। हीरो और विलेन हाईकोर्ट में घुस-कर एक दूसरे को मार रहे हैं.. गोलियां चल रही हैं। हाईकोर्ट के माईलॉर्ड जज कुर्सियों के नीचे छिपे हुए हैं, पुलिस वालों का नामों निशान नहीं है और जो पुलिस वाले हैं, वो भी हाईकोर्ट में जज की मौजूदगी में गैंगस्टर की तरफ़ से अंधाधुंध गोलियां चला रहे हैं। अगर ये रियलिस्टक है, सच से प्रेरित है, तो वेदा एक मास्टर पीस है और अगर नहीं, तो वेदा एक मिस फायर है।
क्या है फिल्म की कहानी?
वेदा (Vedaa Movie Review) की कहानी भारत की जड़ों में बसी जाति व्यवस्था की बुराई दिखाता है। मेरठ, हरियाणा और राजस्थान की खाप और बैठकों के फेर में फिल्म फंस नहीं, इसके लिए जब वेदा शुरू होती है, तो इनता लंबा डिस्क्लेमर आता है, कि आपका पेशेंश जवाब देने लगे। खैर कहानी शुरू होती है.. मेजर कोर्ट मार्शल्ड गोरखा ऑफिसर मेजर अभिमन्यु के बाड़मेर आने से, जिसकी ज़िंदगी में एक यंग लड़की वेदा की एंट्री होती है।
वेदा बनी शारवरी वाघ
वेदा ने अपनी ज़िंदगी में छुआ-छूत, जात-पात, ऑनर किलिंग को देखा है, उसके भाई को मार दिया जाता है क्योंकि वो एक बड़ी जाति वाली लड़की के साथ घर से भाग जाता है। इस गुनाह की सजा में उसकी बहन को भी मारा जाता है और उसका भी शिकार करने के लिए बड़ी जाति के बैठक के प्रधान जितेन्द्र प्रताप सिंह और उनकी पूरी सेना लगी हुई है।
वेदा के सारथी बने जॉन अब्राहम
वेदा अपनी ज़िंदगी में बहुत कुछ करना चाहती है, वो बॉक्सिंग सीखकर, कमज़ोर से मज़ूबत बनना चाहती है। मेजर अभिमन्यु जिसकी पत्नी को आंतकवादियों ने मार दिया, उनसे बदला लेकर कोर्ट मार्शल होकर, बाड़मेर आकर, वेदा के अंदर की आग को पहचानता है। उसका कोच बनता है, उसके बॉक्सिंग सिखाता है और उसे उसकी लड़ाई में सारथी बनकर कोर्ट तक पहुंचाता है। बैठकें होती हैं, कुछ साल पहले तक वहां छोटी जाती के लोगों को लेकर – दरबदर, सजा और मौत तक के फरमान भी जारी होते रहे हैं।
डायरेक्शन कैसा है?
कुछ मामले अभी भी सामने आते हैं। लेकिन जाति व्यवस्था की जो कहानी, असीम अरोड़ा ने बुनी है... वो 1985 में रिलीज़ हुई जे.पी.दत्ता की गुलामी से ज़्यादा वायलेंट और अन-रियलिस्टिक है। पार्ट्स में आप कहानी से जुड़ना शुरू करते हैं, लेकिन तभी 'मम्मी जी' गाना आ जाता है, आप फिर वेदा की ट्रेनिंग को देखने लगते हैं, तो होलिया बजने लगता है और इसके बाद गोरखा रेजीमेंट का फौजी अभिमन्यु जैसे ख़ून खराबा करने लगता है, तो स्टोरी अपना वजूद खोने लगती है। यकीन मानिए, जितनी जगह जॉन को ख़ामोश, बिना एक्शन के रखा गया है, वहां तक फिल्म वाकई होल्ड करती है।
क्लाइमेक्स में नहीं दम
मगर एक बार बैठक के प्रधान के गुंडों और वेदा-अभिमन्यु के बीच चूहे-बिल्ली का खेल शुरु होता है, तो फिर कहानी पीछे छूट जाती है। कुछ हिस्सों तक ये एक्शन भी जंचता है, जैसे जब वेदा को गुंडों से बचने के लिए अपने बाल कांटने पड़ते हैं। माइनिंग डिपो के अंदर छोटे प्रधान के साथ वेदा का बदला वाला सेक्वेंस... मगर इसके बाद सिर्फ़ एक्शन है। क्लाइमेक्स के 28 मिनट के राजस्थान हाईकोर्ट एक्शन सेक्वेंस के दौरान तो फिल्म पूरी तरह से लॉजिक का साथ छोड़ देती है। हांलाकि जॉन ने एक्शन में पूरी जान लगाई है, लेकिन कहानी की जान निकाल ली है।
कैसी है स्टारकास्ट की एक्टिंग
परफॉरमेंस पर आइएगा, तो वेदा, वाकई वेदा बनी शारवरी वाघ की फिल्म है, जितनी देर शरवरी स्क्रीन पर रहती हैं, आप इस कमाल की एक्ट्रेस के एक्सप्रेशन्स को निहारते रहते हैं। एक्शन के हिस्से में भी शरवरी ने कमाल किया है। जॉन अब्राहम ने न्यूयॉर्क के बाद वाकई एक्टिंग करने की कोशिश की है, ख़ामोशी में भी आप जॉन के गुस्से को समझ सकते हैं। मगर एक बार जब वो एक्शन मोड में आते हैं, तो फिर आपको लगता है कि ये पूरा रिपीट मोड वाला मामला हो गया है। अभिषेक बनर्जी कमाल के एक्टर हैं, एक और स्त्री में जना बनकर अभिषेक ने एक दूसरी इमेज पेश की है और यहां प्रधान जितेन्द्र बनकर जॉन के सामने लड़ते हुए भी वो कमतर नहीं लगे हैं। आशीष विद्यार्थी की तो खैर अदाकारी के कहने ही क्या।
वेदा की नीयत सही है, ट्रीटमेंट गलत है। बनना उन्हे बजरंगी भाईजान था, लेकिन बना दिया उन्होने रॉकी हैंडसम।
वेदा को 2 स्टार।
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