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एक्ट्रेस की तलाश में कभी रेड लाइट एरिया गए थे दादा साहेब फाल्के, फिर ऐसे मिली पहली हीरोइन

Dada Saheb Phalke: इंडियन सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को हुआ था।उनका असली नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था। आइए आज उनके जन्मदिन पर जानते हैं उनसे जुड़ी कुछ अनसुनी बातें: दादा साहेब फाल्के एक बेहतरीन डायरेक्टर ही नहीं बल्कि बेहद उम्दा स्क्रीन राइटर और प्रोड्यूसर थे।अपने […]

Dada Saheb Phalke: इंडियन सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को हुआ था।उनका असली नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था। आइए आज उनके जन्मदिन पर जानते हैं उनसे जुड़ी कुछ अनसुनी बातें: दादा साहेब फाल्के एक बेहतरीन डायरेक्टर ही नहीं बल्कि बेहद उम्दा स्क्रीन राइटर और प्रोड्यूसर थे।अपने 19 साल के फिल्मी करियर में 95 फिल्में और 27 शॉर्ट फिल्में बनाई थी। ऐसा बताया जाता है कि दादासाहब फाल्के का इंट्रेस्ट शुरू से ही कला में थी। वह इसी क्षेत्र में अपना करियर बनाना चाहते थे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उन्होंने 1885 में जे जे कॉलेज ऑफ आर्ट में दाखिला लिया। इसके साथ ही उन्होंने वडोदरा के कलाभवन से भई कला की शिक्षा ली। पढ़ाई के बाद उनको एक नाटक कंपनी में चित्रकार के रूप में काम मिल गया। ऐसा बताया जाता है कि साल 1903 में वे पुरातत्व विभाग में फोटोग्राफर के तौर पर काम करने लगे थे। लेकिन एक समय के बाद दादा साहब का मन फोटोग्राफी से भी भर गया और उन्होंने आगे जाकर यह काम फोटोग्राफर की नौकरी छोड़ दी। बताया जाता है कि इसके बाद उन्होंने फिल्मी दुनिया में कदम रखा था। अपने सपने को पूरा करने के लिए साल 1912 में अपने दोस्त से कुछ पैसे उधार लेकर वो लंदन चले गए। करीब दो सप्ताह तक लंदन में फिल्म निर्माण के बारे में सीखा और इससे जुड़े उपकरण खरीदने के बाद मुंबई वापस लौट आए। फिल्मों के बारे में दादा साहेब फाल्के सब गुर सीख आए थे लेकिन अब उन्हें जरूरत थी पैसों की। जाहिर सी बात है कि फिल्म बनाने के लिए सबसे पहले पैसों की ही जरूरत थी। चूंकि कला नई थी और कलाकार भी नया था, इसलिए कोई भी फिल्मों में अपना पैसा नहीं लगाना चाहता था। लोगों को यकीन नहीं था कि दादा साहब फिल्म बना भी पाएंगे। लेकिन दादा साहेब ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने किसी तरह एक प्रोड्यूसर को यकीन दिलाया। फिर उन्होंने 'पौधों के विकास' पर छोटी फिल्म बनाई। तब जाकर दो लोग उन्हें पैसा देने के लिए राजी हुए। लेकिन इतना काफी नहीं था। ऐसा बताया जाता है कि दादा साहब ने अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखे।इतना ही नहीं उन्होंने अपनी संपत्ति भी गिरवी रखी थी।   फिल्म में राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती के रोल के लिए महिला अभिनेत्री की जरूरत थी। उस समय फिल्मों में काम करना एक सभ्य पेशा नहीं माना जाता था। कोई भी महिला रोल के लिए राजी नहीं हुई। थक-हारकर फाल्के रेड लाइट एरिया में गए। पर वहां कुछ नहीं हुआ। तब उन्होंने एक बावर्ची अन्ना सालुंके को तारामती के रोल के लिए चुना।   एक मशहूर कहावत है कि हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है। फिल्म निर्माण के दौरान दादा साहब फाल्के की पत्नी ने उनकी काफी मदद की थी। वह फिल्म में काम करने वाले लगभग 500 लोगों के लिए खुद खाना बनाती थीं। दादा साहब की आखिरी मूक फिल्म 'सेतुबंधन' थी। दादा साहब ने 16 फरवरी 1944 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। इंडियन सिनेमा में दादा साहब के योगदान के चलते 1969 से भारत सरकार ने उनके सम्मान में 'दादा साहब फाल्के' अवार्ड की शुरुआत की। इस पुरस्कार को भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च और प्रतिष्ठित पुरस्कार माना जाता है। सबसे पहले देविका रानी चौधरी को यह पुरस्कार मिला था।

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